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आराम करो{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=गोपालप्रसाद व्यास}}
<pre>एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?<br>इस डेढ़ छटांक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।<br>क्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।<br>संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"<br>हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।<br>इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।<br><br>
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।<br>आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।<br>आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।<br>आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।<br>इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।<br>ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।<br><br>
यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।<br>अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।<br>करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।<br>जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।<br>तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ, है मज़ा मूर्ख कहलाने में।<br>जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।<br><br>
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।<br>जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।<br>दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।<br>जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।<br>मेरी गीता में लिखा हुआ, सच्चे योगी जो होते हैं,<br>वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।<br><br>
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।<br>वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।<br>जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,<br>तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।<br>मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।<br>भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।<br><br>
मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।<br>मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।<br>मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।<br>छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।<br>मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।<br>यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो। </prebr><br>- गोपालप्रसाद व्यास