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<poem>सजा हुआ हूं नश्तरों की, बनी मीनार पर,
नुमाईश लगी है ग़मों की, टूटी दीवार पर।

सीने के दरम्यां है, अभी वजूद ख़ंजर का,
जाने क्यों छाई नहीं, दहशत लोहार पर ।

दर्द अब तक बैठा था, जिस अंधी सुरंग में,
नज़र पड़ी है बस अभी उस की दरार पर।

रतजगों की हिदायतें, सुर्ख़ आंखें दे गयीं,
पहरे लगे हैं अश्क़ों के, जैसे ख़ुमार पर।

सफ़र का आग़ाज़ था, कांटों का पायदान,
आख़िर में चल रहा हूं, जलते अंगार पर।</poem>
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