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14:12, 30 जुलाई 2011 <poem>ठोकर से जज़्बात मेरे, चट्टान हुए ।
मेहमां थे जो ज़ख़्म, वो मेज़बान हुए॥
टुकड़ा-टुकड़ा मौत, मेरे हिस्से आई ।
जर्जर हो कर ढ़हता सा, मकान हुए ॥
चमक हमारी यूं तो अब है, गुंबद पर ।
लेकिन धूप से लड़ने के, फ़रमान हुए॥
बुत बन कर जब बैठ गए, तो ख़ुदा हुए।
लफ़्ज़ ज़ुबां से निकले, तो इन्सान हुए ॥
वादा-शिकन ने हाल ही ऐसा, कर छोड़ा ।
हम नोची-खायी लाशों के, शमशान हुए ॥ </poem>