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14:12, 30 जुलाई 2011 <poem>सुबकने पर हमारे, उसके होठों पर तबस्सुम आ गया ।
दास्तां का दौर मुझे दे कर, वो ख़ुद क़ह्क़हे सुना गया ।
बहती हुई मेरी आंखों पर, जैसे ही उसकी नज़र पड़ी ,
सूखी हुई झील की तोहमत वो, मुझ पर ही लगा गया ।
ज़ेहन में मेरे ठहरी हुई सी, धुंध उलझ कर जम सी गई ,
समा ना जाए चुपके से, वो तपिश पर पहरे बिठा गया ।
रिसता हुआ पानी ज़ख़्मों का, उसकी नज़रों की ठंडक था ,
भरे ना ज़ख़्म हरा कर दे, कोई ऐसी मरहम लगा गया ।
ग़ुनाह जो मैंने किए नहीं , वो उनके अंधेरे में इक दिन ,
मेरी चटखी हुई मिन्नत पर, लरज़ता तरन्नुम सुना गया । </poem>