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कब तक? / अवनीश सिंह चौहान

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{{KKRachna
|रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान
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दांव लगा कपटी शकुनी से
हार वरूं मैं कब तक ?

विपरीत तटों का हरकारा-
सेतु बनूँ मैं कब तक?
इनका-उनका बोझा-बस्ता
पीठ धरूँ मैं कब तक?

बड़े-बड़े जालिम पिंडों की
चोट सहूँ मैं कब तक?

पाँव फंसाए गहरे पानी
खड़ा रहूँ मैं कब तक ?
नीली होकर उधड़ी चमड़ी
धार गहूँ मैं कब तक?

कोई तो बतलाये आकर
यहाँ रहूँ मैं कब तक?

रोवां-रोवां हाड़ कंपाती
शीत सहूँ मैं कब तक?
बिजली, ओलों, बारिश वाली
रात सहूँ मैं कब तक?

बहुत हुआ अब और न होगा
धीर धरूँ मैं कब तक?
</poem>
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