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12:39, 3 सितम्बर 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=राजीव भरोल 'राज़'
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
पड़ा हुआ जो ये पानी में जाल है साहब,
यकीन जानिये दरिया की चाल है साहब.
खिलाफ ज़ुल्म के गुस्सा है जो ये लोगों में,
ज़रा सी देर का केवल उबाल है साहब.
हरेक बात पे रो रो के बात मनवाना,
ये आंसुओं का ग़लत इस्तेमाल है साहब.
सुकूने दिल से है दौलत का वैर जग ज़ाहिर,
अमीर है वो मगर ख़स्ताहाल है साहब.
नदी में रह के मगरमछ से वैर रखता है,
उस आदमी की भी हिम्मत कमाल है साहब.
कहाँ कहाँ मेरे हिस्से के ख़्वाब बिखरे हैं,
हमारी नींद का जायज सवाल है साहब.
गरीब के तो हैं सपने भी रोज़मर्रा के,
किराया घर का या रोटी या दाल है साहब.
मैं टूटते हुए घर को बचा नहीं पाया,
अभी तलक मुझे इसका मलाल है साहब.
</poem>