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13:28, 3 सितम्बर 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राजीव भरोल 'राज़'
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
जिसको काँटा नहीं चुभा होगा,
वो कहाँ रात भर जगा होगा.
धुंध बिखरी हुई है आंगन में,
उसने बादल को छू लिया होगा.
दिल की बस्ती में रौशनी कैसी,
वो इसी राह से गया होगा.
जम के बरसा था रात भर बादल,
ज़ख्म कच्चा था खुल गया होगा.
बंद कर के सभी झरोखों को,
मन की खिड़की वो खोलता होगा.
उसकी हर बात है गज़ल जैसी,
घर में खुशबू बिखेरता होगा.
मतलबी इस कदर नहीं था वो,
शहर आदत सी बन गया होगा.
कितने हिस्सों में बट गई खुशबू,
तुम ये कहते थे क्या नया होगा?
</poem>