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{{KKRachna
|रचनाकार=दिनेश त्रिपाठी 'शम्स'
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यूं तो सदा असीमित ही इच्छायें होती हैं ,
रोको मन को इसकी कुछ सीमायें होती हैं .
जन वंचित के वंचित ही रह जाते हैं ,
और तंत्र को मिली सभी सुविधायें होती हैं .
श्रेय भले ही मिले यग्य के कर्ता को ,
लेकिन जलने वाली तो समिधायें होती हैं .
मन का निश्चय जब भी बढ़ता है आगे ,
राह रोककर खड़ी कई दुविधायें होती हैं .
ले लेते जो सहज शपथ पद-निष्ठा की ,
बिकने को आतुर उनकी निष्ठायें होती हैं .
</poem>