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13:04, 17 सितम्बर 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"
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<poem>
जलते बदन हैं दोनों पैदा है होती आग
जितना बुझाओ इसको बढ़ती है उतनी आग
कहते जलन है किसको पूछो तो हाल उससे
जब भूख से लगी हो इस पेट में भी आग
बारिश में भीगे तन ये लहरों में डूब जाएं
पानी से भी न बुझती रहती है प्यासी आग
काया बनी है अपनी इन पांच तत्वों से ही
आकाश,मिट्टी,पानी शामिल हवा भी आग
"आज़र" कमाल है ये नफ़रत कि आग भी
जितना बुझाया इसको उतनी ही भड़की आग
<poem>