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{{KKRachna
|रचनाकार=ओम निश्चल
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<Poem>
उठ गए डेरे
यहॉं से धूप के
डोलियॉं बरसात की आने लगी हैं।

चल पड़ी हैं फिर हवाएँ कमल-वन से,
घिर गए हैं मेघ नभ पर मनचले,
शरबती मौसम नशीला हो रहा
तप्त तावे-से तपिश के दिन ढले
सुरमई आँचल
गगन ने ढँक लिए
फिर घटाएँ जामुनी छाने लगी हैं।

आह, क्या कादम्बिेनी है, और ये
अधमुँदी पलकें मदिर सौदामिनी की
इंद्रधनुषी देह, बादल-राग गाती
सॉंस जैसे कॉंपती है कामिनी की
पड़ रही जब से
फुहारें चंदनी
आँसुओं में कुछ नमी आने लगी है।
<Poem>
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