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13:59, 23 सितम्बर 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=शेष बची चौथाई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
रवि-किरणों से लड़ी हुई हैं नई कोंपलें ग़ज़लों की
सीना ताने खड़ी हुई हैं नई कोंपलें ग़ज़लों की
होकर पूर्ण पल्लवित, पुष्पित नई ताज़गी लाएंगी
इस प्रण पर ही अड़ी हुई हैं नई कोंपलें ग़ज़लों की
छेड़ रही वक्रोक्ति तराना, हंसे व्यंजना मतवाली
हौले-हौले बड़ी हुई हैं नई कोंपलें ग़ज़लों की
काव्य जगत के कई समीक्षक सुनें आप क्या कहते हैं
‘नव रत्नों से जड़ी हुई हैं नई कोंपलें ग़ज़लों की’
उनकी सूक्ष्म दृष्टियों पर है हमें मित्र संदेह बहुत
जो कहते हैं सड़ी हुई हैं नई कोंपलें ग़ज़लों की
<poem>