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{{KKRachna
|रचनाकार=पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"
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<poem>
अपने वतन की ख़ुशबू ,फैली है कुल जहाँ में
रौशन हुए हैं तारे, धरती के आसमाँ में

हर पत्ता है अनूठा,हर गुल की छवि निराली
सौ रंग के ये बूटे हैं, किसके गुलसिताँ में

धामे हुए हैं सब ही, इक दूसरे के बाज़ू
चेहरे अलग- अलग हैं,वैसे तो कारवाँ में

इतिहास की जबाँ पर,ज़िंदा रही है अब तक
इक दास्ताँ हमारी. दुनिया की दास्ताँ में

नादान हैं वो "आज़र" जो जानते नहीं हैं
यदि शँख में है जादू, तो रंग हैं अजाँ में
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