1,438 bytes added,
10:41, 5 अक्टूबर 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=शेष बची चौथाई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
क्या व्यवस्थित रख सकेंगे निज घरों को
व्यर्थ दंडित कर रहे हैं अनुचरों को
नींद तो चिंताओं के कारण न आती
दोष क्या दूँ कंकड़ीले बिस्तरों को
चोट खाकर तिलमिलाया हूं अभी तक
मैं भी समझाने गया था पत्थरों को
नीति सरकारी नहीं आती समझ में
है नदी में बाढ़ पाटा पोखरों को
दो क़दम चलते हैं घंटों हाँफते हैं
देखिये साहिब हमारे रहबरों को
तन के घावों को छुपाए घूमते हैं
उस्तरे सौंपे थे हमने बन्दरों को
ऐ ‘अकेला’ ख़ुद भी कुछ करके दिखाओ
है सरल उपदेश देना दूसरों को
<poem>