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जिजीविषा / अनीता अग्रवाल

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|रचनाकार=अनीता अग्रवाल
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दाना लेकर दीवार पर
चढ़ती हुई चोटीं
गिर जाती है
और कुचली जाती है
दाना
पांच से चिपककर
दूर जा गिरता है
एक दूसरी चींटी आकर
अहसास कराती है,
अपने होने का
जो साथी चींटी को ले जाती है
बिना किसी गिला-शिकवा के
और
मैं देखती रह जाती हूं
मुश्किल से उठाकर
लाये उस दाने को
</poem>
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