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गाँव / मनु भारद्वाज

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वो मासूम बचपन के ख्वाबों का गाँव
वो मिटटी कि खुसबू वो बरगद कि छाँव
मेरी ज़िन्दगी को रुलाने लगा है
अचानक बहुत याद आने लगा है

वो चौपाल और वो नदी का किनारा
वो बागों में तितली पकड़ना हमारा
वो गिरधर कि बातें अली का इशारा
मै सबकी निगाहों का था इक सितारा

वो दरिया किनारे कि मिटटी उठाना
बहुत खूबसूरत घरोंदा बनाना
वो गोरी कि गागर से माखन चुराना
वो बंसी का छुपे से हुक्का बुझाना

वो सरसों का साग और वो मक्के कि रोटी
वो आकाश को छूती परबत कि छोटी
घनी धूप में खेलना मेरा गोटी
वो बापू कि लाठी वो अम्मा कि सोटी

जवानी में मेरे क़दम डगमगाए
शहर कि तरफ मुझको लेके ये आये
यकायक कभी कोई हिचकी जो आये
लगे जैसे बूढी माँ मुझको बुलाये

शहर में सभी दोस्ती से अलग हैं
यहाँ राहबर रहबरी से अलग हैं
हकीकत में सब ज़िन्दगी से अलग हैं
यहाँ आदमी, आदमी से अलग हैं

यहाँ भाई को भाई से दुश्मनी है
यहाँ सहमा-सहमा सा हर आदमी है
यहाँ भूक है, लूट है, बेबसी है
यहाँ ज़िन्दगी बस ग़म-ए-ज़िन्दगी है

यहाँ शहर में क़त्ल-गाहें बहुत हैं
यहाँ सिसकियाँ और आहें बहुत हैं
यहाँ बदली-बदली निगाहें बहुत हैं
तबाही की रंगीन राहें बहुत हैं

मै लौटूंगा तो मुस्कुराएगा गाँव
कि सीने से अपने लगाएगा गाँव
मेरी तश्नगी को बुझाएगा गाँव
फिर इक जश्न मिलके मनायेगा गाँव</poem>
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