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अनुभव-दान / दुष्यंत कुमार

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तारों से घबराओ
भला कहीं यूँ भी दर्द घटता है!
मन की कमज़ोरी में बहकर
खड़े खड़े गिर जाओ
खुली हवा में न आओ
भला कहीं यूँ भी पथ कटता है!
झुकी हुई पीठ,
टूटी हुई बाहों वाले बालक-बालिकाओं सुनो!
खुली हवा में खेलो।
चाँद को चमकने दो, हँसने दो
देखो तो
ज्योति के धब्बों को मिलाती हुई
रेखा आ रही है,
कलियों में नए नए रंग खिल रहे हैं,
भौरों ने नए गीत छेड़े हैं,
आग बाग-बागीचे, गलियाँ खूबसूरत हैं।
उठो तुम भी
हँसी की क़ीमत पहचानो
हवाएँ निराश न लौटें।
उदास बालक बालिकाओं सुनो!
समय के सामने सीना तानो,
झुकी हुई पीठ
टूटी हुई बाहों वाले बालकों आओ
मेरी बात मानो।
</poem>
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