{{KKRachnakaarParichay
|रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा
}}" छायावाद के जितने कवि थे वे हमारे लिये एक प्रकार से आदर्श रहे और इस समय मैँ बडे आदर के साथ श्री सुमित्रानँदन पँत का नाम लेना चाहूँगा,बल्कि हम दोनोँ ही नरेन्द्रजी और मैँ, दोनोँ ही ...हम दोनोँ ही पँतजी की कविता के बडे प्रेमी थे. वे हमारे आदर्श थे.कविके रुप मेँ भी वे हमारे आदर्श थे और उनको आदर्श बनाकर उनसे कुछ सीख कर हम लोग कुछ आगे बढे! ..जब हम लोग आये, तो हमे ऐसा मालूम हुआ, शायद हिन्दी कविता को मनीषा की आवश्यकता थी, कि हम इस कविता मेँ जीवन के सँपर्क को लायेँ और मैँ इस समय स्मरण करता हूँ कि नरेन्द्र और अँचल ये दो, ऐसे कवि हमारे समकालीन हैँ....हम लोगोँने कविता को एक नयी भूमि पर, जीवन के अधिक निकट लाने शर्मा का प्रयत्न किया. योँ तो नरेन्द्र जी इन चालीस वर्षोँ मेँ हमारी हिन्दी कविता जितने सोपानोँ से होकर निकली हैजन्म 28 फ़रवरी, उन सब पर बराबर पाँव रखते हुए चले हैँ1913 ई. शायद प्रारम्भिक छायावादीमें गांव जहांगीरपुर, उसके बाद जीवन के सँपर्क माँसलता लेते हुए ऐसी कविताएँपरगना ज़ेवर, प्रगतिशील कविताएँतहसील खुर्जा , दार्शनिक कविताएँ, सब सोपानोँ मेँ इनकी अपनी छाप है. ...मैँ आपसे यह कहना चाहता हूँ कि प्रेमानुभूति के कवि के रुप मेँ नरेँद्रजी मेँ जितनी सूक्षमताएँ हैँ और जितना उद्`बोधन है , मैँ कोई एक्जाज़्रेशन जिला- बुलंदशहर ( अतिशयोक्ति उत्तरप्रदेश) नहीँ कर रहा हूँ , वह आपको हिन्दी के किसी कवि मेँ नहीँ मिलेँगीँ उस समय को जब मैँ याद करता हूँ , तो मुझे ऐसा लगता है , भाषाओँ से हमारी में हुआ था। 1931 ई. में इनकी पहली कविता ने एक ऐसी भूमि छूई थी और एक ऐसा साहस दिखलाया था, जो साहस छायावादी कवियोँ मेँ नहीँ है ! वह जीवन से निकट अनुभूतियोँ से ऊपर उठकर ऊपर चला जाता था, यानी उसको छिपाने के लिये , छिपाने के लिये तो नहँ, कमसे कम शायद वह परम्परा नहीँ थी ! इस वास्ते उस भूमि को वे छूते 'चांद' में छपी। शीघ्र ही नहीँ थे जागरूक, लेकिन जन नरेन्द्र आये, तो उन्होँने जीवन की ऐसी अनुभूतियोँ को वाणी दी, जिनको छूने का साहस, जिनको कहने का साहस, लोगोँमेँ नहीँ था. यह केवल अभिव्यक्ति नहीँ थी, यह केवल प्रेषण नहीँ था, यह उद्`बोधन यानी जिन अनुभूतोयोँ से अध्ययनशील और भावुक कवि गुजरा था, उहेँ औरोँ से अनुभूत करा देना था ! नरेन्द्र जी की कविताएँ प्रकृति - सँबँधी भी हैँ ..एक बात मेँ मुझे नरेन्द्रजी ने उदीयमान नए कवियों में अपना प्रमुख स्थान बना लिया। लोकप्रियता में इनका मुकाबला हरिवंशराय बच्चन से ईर्ष्या थी, वह यह कि जब मैँ केवल गीत ही लिख सका, ये खँडकाव्य भी लिखते रहे और कथाकाव्य मेँ भी इनकी रुचि प्रारम्भ से रही है. मैँ अपनी शुभकामनाएँ इनको देता हूँ , आशीर्वाद देता हूँ और उनसे स्वयम्` , ब्राह्मण ठहरे, आशीर्वाद चाहता हूँ कि भई, मुझे भी ऐसी उम्र दो कि तुम्हारा वैभव और तुम्हारी उन्नति देखता रहूँ ! हो सकता था।
1933 ई. में इनकी पहली कहानी प्रयाग के 'दैनिक भारत'में प्रकाशित हुई। 1934 ई. में इन्होंने मैथिलीशरण गुप्त की काव्यकृति '(" पँडित यशोधरा' की समीक्षा भी लिखी। सन् 1938 ई. में कविवर सुमित्रानंदन पंत ने कुंवर सुरेश सिंह के आर्थिक सहयोग से नए सामाजिक-राजनीतिक, आर्थिक स्पंदनों से युक्त 'रूपाभ' नामक पत्र के संपादन करने का निर्णय लिया। इसके संपादन में सहयोग दिया नरेन्द्र शर्मा ने। भारतीय संस्कृति के प्रमुख ग्रंथ 'रामायण' और 'महाभारत' इनके प्रिय ग्रंथ थे। महाभारत में रुचि होने के कारण ये 'महाभारत' धारावाहिक के निर्माता बी.आर. चोपड़ा के अंतरंग बन गए। इसलिए जब उन्होंने 'महाभारत' धारावाहिक का निर्माण प्रारंभ किया तो नरेन्द्रजी उनके परामर्शदाता बने। उनके जीवन की अंतिम रचना भी 'महाभारत' का यह दोहा ही है : " षष्ठिपूर्ति शंखनाद ने कर दिया, समारोह का अंत, अंत यही ले जाएगा, कुरुक्षेत्र पर्यन्त" के अवसर पर डा। 11 फरवरी, 1989 ई. हरिवँश राय बच्चन के भाषण को ह्दय-गति रुक जाने से साभार उद्`धृत उनका देहावसान होगया। नरेन्द्र शर्माजी ने हिन्दी साहित्य की 23 पुस्तकें लिखकर श्रीवृद्धि की है। जिनमें प्रमुख हैं:- प्रवासी के गीत, मिट्टी और फूल, अग्निशस्य, प्यासा निर्झर, मुठ्ठी बंद रहस्य (कविता-संग्रह)मनोकामिनी, द्रौपदी, उत्तरजय सुवर्णा (प्रबंध काव्य) आधुनिक कवि, लाल निशान (काव्य-संयचन) ज्वाला-परचूनी (कहानी-संग्रह, 1942 में 'कड़वी-मीठी बात' नाम से प्रकाशित) मोहनदास कर्मचंद गांधी:एक प्रेरक जीवनी, सांस्कृतिक संक्राति और संभावना (भाषण)। लगभग 55 फ़िल्मों में 650 गीत एवं 'महाभारत' }}का पटकथा-लेखन और गीत-रचना।