{{KKCatKavita}}
<poem>
::(१)
बुद्धि पगड़ी सी बड़ी टीबो सा अनंत धन,
::कोमलता भूमि सी स्वभाव बीच भरिए।
मारवाड़ी भाइयों! मतीरे के समान आप
::ताप परिताप निज भारत का हरिए॥
::(२)
थोड़े में गरम फिर शीतल सहज ही में,
::रेत का सा अस्थिर स्वभाव मत करिए।
रखिए सदैव गुणियों के अनुकूल मन,
::कूप के समान दूर दान मत धरिए॥
बाजरे सा नीरस कटीले हो न कीकर सा
::काचरे सी कटुता न मुख से उचरिए।
मारवाड़ी भाइयों! किसी के जो न काम आवे
::ऐसा जन्म टीबड़े सा लेकर न मरिए॥
</poem>