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02:54, 9 दिसम्बर 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=डॉ भावना कुँअर
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अभी भरे भी नहीं थे
पुराने जख़्म...
कि नयों ने बना लिया रस्ता
हम सोचकर यही
छिपाते रहे उनको
कि सह लेंगे चुपचाप...
रातभर
सिसकियों को दबाकर
जख़्मों को
मरहम लगाने का
उपाय करते रहे
न जाने कब
एक सिसकी
बाहर तक जा पहुँची
और फिर
जो तूफ़ान आया
उसका अंदाज़ भी नहीं था
मिट गए सभी जख़्म
और बन्द हो गईं सिसकियाँ
सदा के लिए
कभी-कभी एक साया सा
दिखता है कमरे की खिड़की से
पर अन्दर देखो तो
अंधकार के सिवा कुछ नहीं
एक धुआँ उठता है
अमावस की रात में
पर दरवाजा खोलो तो कुछ नहीं
लोग कहते हैं कि
यहाँ भटकती है
रूह किसी की...
आवाज़ आती है
उसकी कराहट की...
पर अब
सिसकियाँ नहीं आती ...
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