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यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नही नहीं है<br>थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही नहीं है<br><br>
चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से<br>
चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से<br>
शुरू हुई आराध्य भूमि यह क्लांत नहीं रे राही;<br>
और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग से<br>
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नही नहीं है<br>थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही नहीं है<br><br>
अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,<br>