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19:27, 30 दिसम्बर 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मख़्मूर सईदी
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कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियाँ
घर कहीं गुम हो गया दीवारो-दर के दर्मियाँ
कौन अब इस शहर में किसकी ख़बरगीरी करे ?
हर कोई गुम इक हुजूमे-बेख़बर के दर्मियाँ
जगमगायेगा मेरी पहचान बन कर मुद्दतों
एक लम्हा अनगिनत शामो-सहर के दर्मियाँ
एक साअत थी कि सदियों तक सफ़र करती रही
कुछ ज़माने थे कि गुज़रे लम्हे भर के दर्मियाँ
वार वो करते रहेंगे, ज़ख़्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना संगो-सर के दर्मियाँ
क्या कहें हर देखने वाले को आख़िर चुप लगी
गुम था मंज़र इख़्तिलाफ़ाते-नज़र के दर्मियाँ
किस की आहट पर अंधेरों के कदम बढ़ते गये ?
रहनुमा था कौन इस अंधे सफ़र के दर्मियाँ
कुछ अंधेरा-सा, उजालों से गले मिलता हुआ
हमने इक मंज़र बनाया ख़ैरो-शर के दर्मियाँ
बस्तियाँ ‘मख़्मूर’ यूँ उजड़ी कि सहरा हो गईं
फ़ासिले बढ़ने लगे जब घर से घर के दर्मियाँ
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