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ज़ादे-सफ़र / मख़्मूर सईदी

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अजनबी चेहरों के फैले हुए इस जंगल में
दौड़ते भागते लम्हों के दरीचे से कभी
इत्तेफ़ाक़न तेरी मानूस शबाहत की झलक
पर्द-ए-चश्मे-तख़य्युल प’उभर कर ऐ दोस्त
डूब जाती है उसी पल, उसी साअत, जैसे
तेज़रौ रेल की खिड़की से, ज़रा दूरी पर
किसी सेहरा की झुलसती हुई वीरानी में
नागहाँ मंज़रे-रंगी कोई दम भर के लिए
इक मुसाफ़िर को नज़र आए और ओझल हो जाए
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