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अजगरी संत्रास / रमेश रंजक

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अरे, मन !
साँस धीमे ले बढ़ेगी और जकड़न
 
सामने है व्यंग्य, पीछे
विष-बुझा परिहास
आदमखोर
 
 
शब्दहीन वेदना को
बींधता सायास
अचेतन
धमनियों में तैर जाता बाँस का बन ।
 
टीसते हैं खिड़कियों के
प्रश्-सूचक चिन्ह
सारी रात
 
टूटता अपनत्व कुंठित
व्योम से विच्छिन्न
उल्कापात
थक गई है नब्ज जब संवेदना की
क्या करे कमज़ोर संजीवन
निवेदन
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