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01:21, 23 जनवरी 2012 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=राजेश चड्ढा
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<Poem>उतरी होटों से आस लगती है
तिश्नग़ी अब लिबास लगती है
बहते पानी को क्या छुआ मैने
अब नदी भी उदास लगती है
जिस्म तो आ गया है साहिल पे
डूबती सांस - सांस लगती है
आंख में ख़्वाब भी है गीला सा
इक नमी आस - पास लगती है
मैं समंदर हूं और मुझको भी
इक नदी भर के प्यास लगती है
</Poem>
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