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<Poem>
वो भी क्या दिन थे हर इक बात पे हैराँ होना
ये भी क्या दिन हैं हर इक वक़्त गुरेज़ाँ होना

हर ग़लत बात पे मैं चुप हूँ मगर सुन लीजे
ग़ैर मुमकिन है हरेक बार मेरी हाँ होना

तूने लफ़्ज़ों में भी न मुझको जगह दी हमदम
मैंने चाहा था तेरी ज़ीस्त का उन्वाँ होना

बावज़ू होके नमाज़ें तो पढ़ें आप मगर
ये ज़रूरी है रहे दिल में भी ईमाँ होना

मर गया मैं तो उसी रोज़ जब ये दिल टूटा
अब तो बाक़ी है फ़क़त मौत का ऐलाँ होना

अपने हिस्से के निवाले भी लुटा देती है
कितना दुश्वार है औरत के लिए माँ होना</poem>
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