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15:47, 31 जनवरी 2012 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=नीरज गोस्वामी
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ढूँढते हो कहाँ उसे हर सू
बंद आँखें करो दिखे हर सू
दीप से दीप यूँ जलाने के
चल पड़ें काश सिलसिले हर सू
एक रावण था सिर्फ त्रेता में
अब नज़र आ रहे मुझे हर सू
छत की कीमत वही बताएँगे जो
रह रहे आसमां तले हर सू
आप थे फूल टहनियों पे सजे
हम थे खुशबू बिखर गए हर सू
वार सोते में कर गया कोई
आँख खोली तो यार थे हर सू
दिन ढले क़त्ल हो गया सूरज
सुर्ख ही सुर्ख दिख रहा हर सू
जब से आई है वो परी घर में
दीप खुशियों के जल उठे हर सू
जब कभी छुप के मुस्कुराती है
फूटते हैं अनार से हर सू
है दिवाली वही असल 'नीरज'
तीरगी दूर जो करे हर सू
</poem>