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कवि-श्री / आरसी प्रसाद सिंह

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आक्रांत कर रही प्रांत-प्रांत;
आँधी-सी मेरी गति अशांत !
 
मैं प्रलय-प्रभंजन, शुभ मुहूर्त;
मंगल, मराल-वाहन, अमूर्त्त !
मैं धूम-ध्वज, मैं मकर केतु,
आकाश विहारी, सिंधु सेतु !!
मैं निष्ठुर, निर्भय, मदोन्भ्रांत;
प्रतिभा से मेरी नभाक्रांत !
 
उद्धत, अनियंत्रित, महावीर;
सुमनाधिराज मैं सुनाशीर !
युग-युग प्रसिद्ध, युग-युग प्रशस्त;
मैं अमर-वाक् कवि वरद-हस्त !!
चीत्कार-चकित, निर्द्वंद्व, भ्रांत;
मैं आँधी, झंझारव अशांत !
 
.... .... ....
 
मैं निरुपम कवि प्रिय, निर्विकार
पाटल-पलाश-पेलव, कुमार !
 
सुख-दुख-स्वप्न-सस्मित, विभोर
रहता मैं चिर-शिशु, चिर-किशोर
मृग-सा कस्तूरी गंध-अंध
फिरता वन-वन में मैं अबंध !!
वाणी नन्दित मंदार हार
मैं विश्व-विमोहन कलाकार !
 
भावों का बहता जब समीर
आता नयनों में छलक नीर
मैं अपने गीतों से अधीर
गुंजित कर देता वन-कुटीर !
इस भवतोयधि-जाप मेंअपार
मैं नाविक कवि, निरुपम, उदार !
मैं चिर-सुंदर, चिर-मधु अनंत
मधुमत्त मधुव्रत्त, मधु वसंत !
यौवन मकर्ष, उन्माद-हर्ष !!
पारस-सा मेरा स्वर्ण स्पर्श !
मैं जगद्वंद्व, जग-मुक्ति-द्वार
कवि चिदानंद, उज्ज्वल, उदार !
'''(हंस : मार्च 1935)'''
</poem>
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