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22:00, 23 फ़रवरी 2012 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=काज़िम जरवली
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<poem>उतनी ही जिंदगी है अज़ीज़ो शबाब में,
रहती है जितनी देर ये शबनम गुलाब में ।
वो कौन शख्स था जो मुझे दे के सो गया,
बूढी पलक के बाल पुरानी किताब में ।
दुनिया उसे भी मानने लगती है शह सवार,
जिसने कभी भी पाँव न रखा रकाब में ।
आगे कभी न बढ़ता दरख्तों का सिलसिला,
कुदरत गुलों का हुस्न जो रखती हिजाब में ।
हमने खुद अपनी ज़ात में महसूस कर लिया,
दुनिया खुदा को ढून्ढ रही है किताब में ।
मैंने वही किया है जो दिल को भला लगा,
"काज़िम" पड़ा नहीं मैं गुनाहों सवाब में ।। -- काज़िम जरवली
</poem>