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01:32, 24 फ़रवरी 2012 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सुशीला पुरी
|संग्रह=
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<poem>
उसने कहा
तुम बिल्कुल बुद्धू हो
और मैं बुद्धूपने में खो गई
उसे देख हंसती रही
और हंसी समूची बुद्धू हो गई,
उसे छूकर लगा
जैसे आकाश को छू लिया हो
और पूरा आकाश ही बुद्धू हो गया चुपचाप,
उसकी आँखों में
उम्मीद की तरलता
और विश्वास की रंगत थी
जो पहले से ही बुद्धू थी
मेरी हथेलियाँ उसकी हथेलियों में थीं
जैसे हमने पूरे ब्रह्मांड को मुट्ठी में लिया हो,
साथ चलते हुये हम सोच रहे थे
दुनिया के साथ-
अपने बुद्धूपने के बारे में
हम खोज रहे थे
पृथ्वी पर एक ऐसी जगह
जो बिल्कुल बुद्धू हो..!
</poem>