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सोने के पिंजड़े / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
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16:35, 4 मार्च 2012
एक स्याह बादल सिर ऊपर
झूम रहा आकाश उठाये
मर्जी जहां
वही
वहीँ
पर बरसे
प्यासा भले जान से जाये
इस पर भी जिद है लोगों की
अधनंगी शाखों पर लटके
यहां वहां बर्रों के छत्ते
फिर भी चाह
रह
रहा
पतझड़ मैं चारण बन उसके गुण
गाऊ
गाऊं
वाह जमाने बलि बलि जाऊं
</poem>
Sheelendra
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