सूरदास प्रभु की यह लीला, परति न महिमा सेष बखानी ॥<br><br>
भावार्थ :-- मोहन ने जब हाथ से मथानी पकड़ी, तब उनके दहीके दही के मटके और नेती(दही मथनेकी मथने की रस्सी) में हाथ लगाते ही क्षीरसागर, मन्दराचल तथा वासुकिनाग वासुकि नाग अपने मनमें मन में डरने लगे (कहीं फिर समुद्र-मन्थन न हो)। कभी तो ये (विराट्रूपसेविराट्रूप से)तीन पैंडमें पैंड में पूरी पृथ्वी माप लेते हैं और कभी देहली पार करना भी इन्हें नहीं आता, कभी तो देवता और मुनिगण इन्हें ध्यानमें ध्यान में भी नहीं पाते और कभी श्रीनन्दरानी यशोदाजी यशोदा जी (गोदमेंगोद में) खेलाती हैं, कभी देवताओं द्वारा अर्पित (यज्ञीय) खीर भी इन्हे रुचिकर नहीं होती और कभी दही और मक्खनको मक्खन को बहुत रुचिकर मानते हैं । सूरदास के स्वामीकी स्वामी की यह लीला है,उनकी महिमाका महिमा का वर्णन शेषजी शेष जी भी नहीं कर पाते हैं ।