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|रचनाकार=मनु भारद्वाज
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<Poem>
अब दे ही रहा है तो मुक़म्मल बयान दे
वादे से फिर न जाएगा मुझको ज़ुबान दे

रखना गुरुर से भी अलग उसको ऐ ख़ुदा
जब भी किसी को तू बहुत ऊंची उड़ान दे

पहचान हुई कुछ ना तेरा नाम ही हुआ
किसने कहा था तुझसे मुहब्बत में जान दे

सारी ज़मीन दे दे किसी को भले ही तू
मुझको तो रहने के लिए बस इक मकान दे

क़िस्मत में ज़िन्दगी है तो बेफिक्र रहना तुम
सईय्याद तुमपे तीर भले क्यूँ ना तान दे

मंदिर पे सिर्फ नाम कि ख़ातिर गया है तू
गर दे ही रहा है तो 'मनु' गुप्त दान दे</poem>
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