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<Poem>
सत्ता पर काबिज
होने को
कट-मर जाते दल
आज सियासत-
सौदेबाजी
जनता में हलचल

हवा चुनावी,
आश्वासन के
लड्डू दिखलाए
खलनायक भी नायक बनकर
संसद पर छाए

कैसे झूठ खुले-
अँजुरी में
भरते गंगा-जल

लाद दिये
पिछले वादों पर
और नये कुछ वादे
चिंताओं का बोझ जिन्दगी
कोइ कब तक लादे

जिये-मरे
ये काम न आये,
बेमतलब, बेहल

वही चुनावी
मुद्दा लेकर
वे फिर घर आए
मन को छूते बदलावों के
सपने दिखलाए

हैं प्रपंच, ये पंच
स्वयं के
कैसे-कैसे छल
</poem>
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