1,472 bytes added,
08:27, 18 मार्च 2012 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान
|संग्रह=
}}
{{KKCatNavgeet}}
<Poem>
अब न अजुध्या
मन में बसती
अब न बगाइच
वाला वह मन
कंकरीट के
मकड़जाल ने
फांस लिया है
सादा जीवन
कभी पकड़ना
अपनी छाया
कभी छाँह से
डर कर रहना
कभी चाँद-
तारों को चाहें
कभी धूप के
मोती चुनना
रस था
आमों के झगड़ों में
'कुट्टी' में भी
था अपनापन
छोटेपन के
बाल-इशारे
माँ समझे या समझे
बापू
जिनकी ओली ही
लगती थी
सबसे ऊंचा
सुन्दर टापू
गाँव किनारे
जखई बाबा
का वह चौपड़
था सिंहासन
धुक-धुक-धुक-धुक
जी करता है
कितने फंदे,
कितने धंधे
चढी जवानी
देखे सपना
बोझिल
झुके हुए हैं कंधे
मन ही मन
यह चाहूँ मुझमें
लौटे फिर से
मेरा बचपन
</poem>