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गुज़रे दिनों / अनिरुद्ध सिन्हा
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अनिरुद्ध सिन्हा
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<Poem>
गुज़रे दिनों की एक मुकम्मल क़िताब हूँ
पन्ने पलट के देखिए मैं इंकलाब हूँ
माली ने ही सलीके से टहनी मरोड़ दी
इल्ज़ाम सिर लगा मेरे, मैं तो गुलाब हूँ!
</poem>
Dr. ashok shukla
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