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गुडिय़ा (4) / उर्मिला शुक्ल
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08:33, 25 मार्च 2012
उसने किया है फैसला
कि नहींबानएगी अब
कोई गुडिय़ा
वह तो बनाएगी एक चिडिय़ा
जो नाप सके
सारा आकाश
आंखो में उतरती
निलिमा के बीच
उगने लगे बाज
क्षण भर को
थरथरा उठी उंगलियां
फिर भी वह बना रही है चिडिय़ा
जिसे लडऩा है
बाजों और बहलियों से।
बाजों और बहलियों से।
</Poem>
आशिष पुरोहित
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