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|रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा
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<Poem>
जब हमारी ही तरह दिखने वाले कुछ लोग
‘क्लोज-अप’ से धोए हुए चमकदार दाँतों से
कुतर देते हैं बेज़ुबान साँस की पंखुड़ियाँ
या मासिक धर्म शुरू होने के एक दिन पहले
अपनी क्लासमेट की सिसकती हुई कोख में
पटक देते हैं अँधेरे का एक सफ़ेद टुकड़ा
तो ऐसों के बारे में क्या ख़याल है आपका ?
क्या आप मानते हैं कि वह दोषी है ?
या दोष उस तंत्र का है
जो उसे वैसा होने पर मजबूर करता है
कहते हैं अगर परवरिश अच्छी हो तो पेड़ अच्छे होते हैं।
<Poem>
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