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18:53, 25 मार्च 2012 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा
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<Poem>
तुम्हारी याद भी अब इस तरह से आती है
जैसे शहर की गलियों में भटक जाए कोई
जैसे खो जाती थीं मेरी उंगलियाँ अक्सर
तुम्हारे बदन के बाग़ों में ‘वॉक’ करते हुए
जैसे रह जाए कोई नाव इस किनारे पर
और हो जाए कोई पार तैर कर दरिया
जैसे ठहरी हुई हवा के आस पास कहीं
कोई रूह मचल जाए बदन पाने को
जैसे होंठ पर पड़ जाए नीला धब्बा
जैसे चाँद में छुप जाए काली सूरत
गीली सोच में पड़ जाए सीलन जैसे
जैसे साँस चटक जाए पत्थर की तरह
जैसे आवाज़ में चूभ जाए काँटा कोई
जैसे चीखने लगें नाम के ‘अक्षर’
जैसे चुपचाप सड़क पर कभी चलते हुए
कहीं दिख जाए कोई चेहरा जाना-जाना-सा
जब उदास भी रहने लगे ख़िड़की अक्सर
और कमरा महीनों से जब न बात करे
मुँह फेर ले सोते हुए बिस्तर भी जब
आँख में आता हुआ ख़्वाब भी जब डर जाए
न अंधेरा, न उजाला, न कोई मौसम हो
ज़िंदगी भी न रहे और न मौत-मातम हो
ऐसे हालात में ‘तुम’ बोलो क्या करे कोई
<Poem>