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आदमी / कुँअर रवीन्द्र
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16:30, 19 अप्रैल 2012
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<poem>
आजकल मैं
/
एक ही बिम्ब में
/
सब कुछ देखता हूँ
/
एक ही बिम्ब में ऊंट और पहाड़ को
/
समुद्र और तालाब को
/
मगर आदमी
/
मेरे बिम्बों से बाहर छिटक जाता है
/
पता नहीं क्यों
/
आदमी बिम्ब में समा नहीं पता है ?
</poem>
Dr. ashok shukla
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