फुरै न बचन बरजिवैं कारन, रहीं बिचारि-बिचारि ॥<br><br>
भावार्थ ;-- एक गोपी कहती है-) `सखी ! गोपाल छिपे-छिपे मक्खन का खा रहे हैं । उनके मनोहर श्यामशरीरकी श्याम-शरीर की देख तो कैसी शोभा बनी है? किस प्रकार वे उठते हैं, आड़ में खड़े होकर इधर -उधर ताक लेते हैं । चकित नेत्रों से चारों ओर देखते हैं । दूसरे सखाओं को (मक्खन) देते हैं, इससे इनका सुन्दर हाथ सखाओंके मुखके सखाओं के मुख के पास इस प्रकार शोभा देता है मानो कमल चन्द्रमासे चन्द्रमा से अपनी शत्रुता छोड़कर छोड़ कर उपहार लिये हुए उससे मिल रहा है । मक्खनके बिन्दु मक्खन के कण बार -बार मुखसे वक्षःस्थल मुख से वक्ष-स्थल पर गिर पड़ते हैं मानो चन्द्रमा अपने प्रियजन (श्रीकृष्णके श्रीकृष्ण के वक्षःस्थलमें वक्ष-स्थल में स्थित अपनी बहिन लक्ष्मी) का आगमन समझकर समझ कर सुहावनी अमृत की बूँदों बूंदों की वर्षा कर रहा है । सूरदासजी सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामीका स्वामी का बाल-विनोद देखकर व्रजकी व्रज की सभी नारियाँ (प्रेमवशप्रेम-वश) शिथिल हो रही हैं, वे सोच-सोचकर सोच कर रह जाती हैं, किंतु (मोहनकोमोहन को) रोकनेके रोकने के लिये मुखसे मुख से शब्द निकलते ही नहीं ।'