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अहिंसा के बिरवे / जगदीश व्योम

11 bytes removed, 04:29, 12 अप्रैल 2013
बहुत वक़्त बीता कि जब इस चमन में
अहिंसा के बिरवे उगाए गए थे
थे सोये हुए भाव जनमन जन-मन में गहरे
पवन सत्य द्वारा जगाये गये थे,
बने वृक्ष, वट-वृक्ष , छाया घनेरी
अभी वक़्त है, हम अभी चेत जाएँ।
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।।
 
 
नहीं काम हिंसा से चलता है भाई
 
सदा अंत इसका रहा दु:खदाई
 
महावीर, गाँधी ने अनुभव किया, फिर
 
अहिंसा की सीधी डगर थी बताई
 
रहे शुद्ध-मन, शुद्ध-तन, शुद्ध-चिंतन
 
अहिंसा के पथ की यही है कसौटी
 
दुखद अन्त हिंसा का होता हमेशा
 
सुखद खूब होती अहिंसा की रोटी
 
नई इस सदी में, सघन त्रासदी में
 
नई रोशनी के दिये फिर जलाएँ।
 
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।
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