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11:30, 23 मई 2012 <poem>इस नदी को देखने लिए
आप इस के एक दम क़रीब जाएं
घिस घिस कर कैसे कठोर हुए हैं और सुन्दर
कितने ही रंग और बनक लिए पत्थर
उतरती रही होगी
पिछली कितनी ही उठानों पर
भुरभुरी पोशाकें इन की
कि गुम सुम धूप खा रहीं
उकड़ूँ ध्यान मगन
और पसरी हुई कोई ठाठ से
आज जब उतर चुका है पानी
अलग अलग बिछे हुए
पेड़
मवेशी
कनस्तर
डिब्बे
लत्ते
ढेले
कंकर
रेत .................
कि नदी के बाहर भी बह रही थीं
कुछ नदियाँ शायद
उन्हें क़रीब से देखने की ज़रूरत थी.
कुछ बच्चे माला माल हो गए अचानक
खंगालते हुए
लदे फदे
ताज़ा कटे कछार
अच्छे से ठोक ठुड़क कर छाँट लेते हर दिन
पूरा एक खज़ाना
तुम चुन लो अपना एक शंकर
और मुट्ठी भर उस के गण
मैं कोई बुद्ध देखता हूँ अपने लिए
हो सके तो एकाध अनुगामी श्रमण
और खेलेंगे भगवान भगवान दिन भर .
ठूँस लें अपनी जेबों में आप भी
ये जो बिखरी हुई हैं नैमतें
शाम घिरने से पहले वरना
वो जो नदी के बाहर है
पानी के अलावा
जिस की अपनी अलग ही एक हरारत है
बहा ले जाएगा गुपचुप अपनी बिछाई हुई चीज़ें
आने वाले किसी भी अँधेरे में
आप आएं
आप आएं
और देख लें इस भरी पूरी नदी को
यहाँ एक दम क़रीब आ कर .
2001
</poem>