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13:50, 26 मई 2012 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार='अना' क़ासमी
|संग्रह=हवाओं के साज़ पर/ 'अना' क़ासमी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
एक जानिब से कहाँ होती हैं सारी ग़लतियाँ
आपकी कुछ गलतियाँ हैं कुछ हमारी ग़लतियाँ
इक ज़रा सी लग़जिशे<ref>गलती</ref>आदम पे ये क्या हो गया
बख़्शने को बख़्श दी जाती है भारी ग़लतियाँ
वो लड़कपन की ख़तायें वो ख़ताओं का सुरूर
मीठी-मीठी लग़ज़िशें वो प्यारी-प्यारी ग़लतियाँ
वक़्त है अब भी सुधर जाओ ‘अना’ वरना सुनो
तुमको अब मँहगी पड़ेंगी ये तुम्हारी गलतियाँ
अब वो तौबा कर रहे हैं मस्जिदों में बैठकर
जबकि बूढ़ी हो चुकी है वो कुंवारी गलतियाँ
बारहा होकर लगी गिरते रहे पड़ते रहे
फिर भी हम सुधरे नहीं फिर भी हैं जारी गलतियाँ
गलतियाँ भी ख़ूबियों में अब गिनी जाने लगी
इस नई तहजीब ने ऐसे संवारी ग़लतियाँ
<poem>
{{KKMeaning}}