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घर गौरस जनि जाहु पराए ।<br>दूध भात भोजन घृत अमृत, अरु आछौ करि दह्यौ जमाए ॥<br>नव लख धेनु खरिक घर तेरैं, तू कत माखन खात पराए ।<br>निलज ग्वालिनी देति उरहनौ, वै झूठें करि बचन बनाए ॥<br>लघु-दीरघता कछु न जानैं, कहूँ बछरा कहुँ धेनु चराए ।<br>सूरदास प्रभु मोहन नागर, हँसि-हँसि जननी कंठ लगाए ॥<br><br>
भावार्थ :-- (माता ने कहा) `लाल! (तुम्हारे) घर में ही (पर्याप्त) गोरस हैं, दूसरे के घर मत जाया करो । दूध भात और घी का अमृततुल्य भोजन है तथा प्रकार (दूध गाढ़ा करके ) दही जमाया है । तुम्हारे ही घर के गोष्ठ में नौ लाख गायें हैं, (फिर) तुम दूसरे के घर जाकर मक्खन क्यों खाते हो ?' (श्याम बोले-)`ये निर्लज्ज गोपियाँ गढ़ी हुई बातें कहकर झूठ-मूठ उलाहना देती रहती हैं ये बड़े-छोटे का भाव कुछ जानती नहीं, कहीं बछड़े और कहीं गायें चराती घूमती हैं ।' सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामी मोहन तो (परम) चतुर हैं, (उनकी बातें सुनकर) माता ने बार-बार हँसते हुए उन्हें गले लगा लिया ।