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चेहरा / विनीत उत्पल

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<Poem>
एक चेहरे के भीतर कितने होते हैं चेहरे
क्या कोई जान सका है आज तक

जिन चेहरों पर दिखती है शराफत
वही निकलते हैं सबसे बड़े दगाबाज
बिलौटे के रूप में सामने आता है
जब उन्हें दिखाया जाता है आईना

ज्ञान बघारते हैं जाति-धर्म के नाम पर
लिखते हैं पुलिंग का स्त्रीलिंग जैसा कुछ
लेकिन अपनी नस्ल की आदतें नहीं छोड़ते
जिस तरह कभी कुत्ते की पूंछ सीधी नहीं होती

सभ्य बनने का ढोंग रचते हैं वे
स्त्री के पक्ष में लिखते हुए
उनके ही शरीर का नापजोख करते हैं
स्त्रीवादी का लबादा ओढ़े हुए
उन्हें ही बनाते हैं दरिंदगी के शिकार

आदत है जिनकी रात रंगीन करने की
लेकिन गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए
मौके-बेमौके पर हो जाते हैं गंभीर
जैसे उन्हें कोई ज्ञान ही नहीं
जैसे उनकी बीवी किसी और की रखैल
और वे किसी और को रखते हैं अपनी जांघों के बीच।
<Poem>
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