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जीवन का मालिन्य / अज्ञेय

320 bytes added, 14:38, 30 जुलाई 2012
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जीवन का मालिन्य आज मैं अपने अस्तित्व की रक्षा करने क्यों धो डालूँ?उर में संचित कलुषनिधि को क्यों खो डालूँ?कहाँ, कौन है जिस को है मेरी भी कुछ परवाह-जिस के लिए बलि हो जाना चाहता हूँ। तुम मेरे बलिदान का खोखलापन दिखा कर उर में मेरी हत्या कर रही हो!कृतियाँ जगा सकें उत्साह?हम दोनों एकविश्व-दूसरे के आखेट हैं, और अनिवार्यनगर की गलियों में खोये कुत्ते-साझंझा की प्रमत्त गति में उलझे पत्ते-साहटो, अटल मनोनियोग से एकआज इस घृणा-दूसरे का पीछा कर रहे हैं।पात्र को जाने भी दो टूट-भव-बन्धन से साभिमान ही पा लेने दो छूट!
'''19 जुलाईदिल्ली जेल, 193323 अक्टूबर, 1932'''
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