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'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विजेन्द्र 'द्विज' }} {{KKCatGhazal}} <poem> सो...' के साथ नया पन्ना बनाया
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|रचनाकार=द्विजेन्द्र 'द्विज'
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सोचता हूँ अपना कोई है अभी तक गाँव में
‘ इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में ’

उसका साया है पिता-सा अब पिता जी तो नहीं
‘इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में ’

और सब अपने पराए शहर में अब आ बसे
एक बस दादी हठीली है अभी तक गाँव में

शहर में चर्चे हैं तेरे रौब -रुतबे के मगर
तेरे बचपन की कहानी है अभी तक गाँव में

तन-बदन बेशक सुखा डाला ग़मों की आग ने
हाँ मगर आँखों में पानी है अभी तक गाँव में

बेचना है शहर में इसके लिए भी गर ज़मीर
आ चलें दो जून रोटी है अभी तक गाँव में

बोलते सुनते समझते हैं जिसे अब तक भी लोग
ढाई आखर प्रेम-बानी है अभी तक गाँव में

साथ है परदेस में भी रात-दिन जिसकी महक
रात-रानी वो सुहानी है अभी तक गाँव में
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