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कभी कभी / अज्ञेय

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<Poem>
:::(1)
दिन जो रोज़ डूबते हैं
बीतते हैं
घड़े जो रोज़ छलकते, रीतते हैं
भरते हैं
 
:::(2)
नियति जो बारती है लाखों घड़ी-घड़ी
देती है दमड़ी भर दान
कभी कभी
मैं जो मानता हूँ कि अपने को ख़ूब जानता हूँ
पाता हूँ अपनी ही पहचान
कभी कभी
मैं ने लिखा बहुत तुम्हारे लिए
पर सचाई की तड़प में किया याद
कभी कभी
पागल तो हूँ, सदा रहा तुम्हारे लिए
पाया पर वासना से परे का उन्माद
कभी कभी।
</poem>
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