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विचार / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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तरंग चुम्बित नदी- तट पर
मर्मरित पल्लवों के जीवन में.
 
प्रेमिक मेरे,
घोर निर्दय हैं वे, दुर्बह है उनका बोझ,
लुक-छिप कर चक्कर काटते रहते हैं वे
चुरा लेने के लिये
तुम्हार आभरण,
सजाने के लिये अपनी नंगी वासनाओं को.
उनका आघात जब प्रेम के सर्वांग में लगता है,
(तो)मैं सह नहीं पाता,
आँसू भरी आँखों से
तुम्हें रो कर पुकारा करता हूँ--
खड्ग धारण करो प्रेमिक मेरे,
न्याय करो !!!
फिर अचरज से देखता हूँ,
यह क्या !!!
कहाँ है तुम्हारा न्यायालय ???
जननी का स्नेह-अश्रु झरा करता है
उनकी उग्रता पार,
प्रणयी का आसीम विशवास
ग्रास कर लेता है उनके विद्रोह शेल को अपने क्षत वक्षस्थल में.
प्रेमिक मेरे,
तुम्हार वह विचारालय(है)
विनिद्र स्नेह से स्तब्ध, निःशब्द वेदना में,
सती की पवित्र लज्जा में,
सखा के ह्रदय के रक्त-पात में,
बाट जोहते हुए प्रणय के विच्छेद की रात में,
आंसुओं-भरी करुणा से परिपूर्ण क्षमा के प्रभात में.
 
 
हे मेरे रुद्र,
लुब्ध हैं वे, मुग्ध हैं वे(जो)लांघ कर
तुम्हारा सिंह-द्वार,
चोरी-चोरी,
बिना निमंत्रण के,
सेंध मार कर चुरा लिया करते हैं तुम्हारा भण्डार.
चोरी का वाह माल-दुर्बह है वह बोझ
प्रतिक्षण
गलन करता है उनके मर्म को
(और उनमे उस भार को)
शक्ति नहीं रहती है उतारने की.
 
 
(तब मैं)रो-रो कर तुमसे बार-बार कहता हूँ--
उने क्षमा करो, रूद्र मेरे.
आँखे खोल कर दहकता हूँ(उम्हारी)वाह क्षमा उतर आती है
प्रचंड झांझा के रूप में;
उस आंधी में धूल में लोट जाते हैं वे,
चोरी का प्रचंड बोझ टुकड़े-टुकड़े होकर
उस आंधी में ना जाने कहाँ जाता है वो.
रूद्र मेरे,
क्षमा तुम्हारी विराजती रही है.
विराजती रहती है.
गरजती हुई वज्राग्नी की शिखा में
सूर्यास्त के प्रलय लेख में,
(लाल-लाल)रक्त की वर्षा में,
अकस्मात(प्रकट होने वाले)संगर्ष की प्रत्यक रगड में.
 
 
२७ दिसम्बर १९१४.
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