जगत् कोलाहल में कल्लोल;
दुखो से पागल होकर आज
रही बुलबुल डालों पर बोल !
५.
विभाजित करती मानव जाति
धरा पर देशों की दीवार,
ज़रा ऊपर तो उठ कर देख,
वही जीवन है इस-उस पर;
घृणा का देते हैं उपदेश
यहाँ धर्मों के ठेकेदार
खुला है सबके हित,सब काल
हमारी मधुशाला का द्वार,
करे आओ विस्मृत के भेद,
रहें जो जीवन में विष घोल;
क्रांति की जिह्वा बनकर आज,
रही बुलबुल डालों पर बोल !
६.
एक क्षण पात-पात में प्रेम,
एक क्षण डाल-डाल पर खेल,
एक क्षण फूल-फूल से स्नेह,
एक क्षण विहग-विहग से मेल;
अभी है जिस क्षण का अस्तित्व ,
दूसरे क्षण बस उसकी याद,
याद करने वाला यदि शेष;
नहीं क्या संभव क्षण भर बाद
उड़ें अज्ञात दिशा की ओर
पखेरू प्राणों के पर खोल
सजग करती जगती को आज
रही बुलबुल डालों पर बोल !
७.
हमारा अमर सुखों का स्वप्न,
जगत् का,पर,विपरीत विधान,
हमारी इच्छा के प्रतिकूल
पड़ा है आ हम पर अनजान;
झुका कर इसके आगे शीश
नहीं मानव ने मानी हार
मिटा सकने में यदि असमर्थ ,
भुला सकते हम यह संसार;
हमारी लाचारी की एक
सुरा ही औषध है अनमोल;
लिए निज वाणी में विद्रोह
रही बुलबुल डालों पर बोल !
८.
जिन्हें जीवन से संतोष,
उन्हें क्यूँ भाए इसका गान?
जिन्हें जग-जीवन से वैराग्य,
उन्हें क्यूँ भाए इसकी तान ?
हमें जग-जीवन से अनुराग,
हमें जग-जीवन से विद्रोह;
हमें क्या समझेंगे वे लोग,
जिन्हें सीमा-बंधन का मोह;
करे कोई निंदा दिन-रात
सुयश का पीटे कोई ढोल,
किए कानों को अपने बंद,
रही बुलबुल डालों पर बोल !